मुख्यमंत्री बदलाव मामले में भाजपा के अंदर भी उथलपुथल है तो कांग्रेस के अंदर भी घमासान है। फर्क इतना है कि भाजपा अनुशासित तरीके से कर रही है और कांग्रेस आत्मघाती तरीके से।
आज सबसे बड़ा सवाल है कि क्या कांग्रेस ने पंजाब में आत्मघाती दांव खेला है। पंजाब कांग्रेस में जारी बगावत का इस तरह का अंत क्या पार्टी के लिए आत्मघाती साबित होगा? अब जब कि कुछ ही महीने विधानसभा चुनाव को बचे हैं, ऐसे में अपने कद्दावर नेता को नाराज कर मुख्यमंत्री पद से हटाना क्या कांग्रेस के सियासी भविष्य के लिए ठीक है? 52 से अधिक वर्ष तक पार्टी की सेवा करने वाले अपने निष्ठावान नेता को क्या कांग्रेस सम्मानजनक विदाई देने में भी समर्थ नहीं है? क्या नवजोत सिंह सिद्धू की पंजाब में सियासी ज़मीन इतनी मजबूत है कि वह अपने दम पर कांग्रेस की नैया पार लगा सकेंग? अब जो नए नेता पंजाब की कमान संभालेंगे, उनके पास इतना समय होगा कि अपने काम के दम पर कांग्रेस की वापसी करवा सकें। इसकी भी क्या गारंटी है कि नए मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को नवजोत सिंह सिद्धू सहयोग करेंगे? क्या कांग्रेस भाजपा से सीख ले सकता है कि बिना चिल्ल-पौं राज्य में मुख्यमंत्री बदल दें। आज राजनीतिक रूप से सिकुड़ने के बावजूद भी कांग्रेस अपनी कार्यशैली में बदलाव लाने को तैयार नहीं लख रही है?
पंजाब में शेक्सपियर के नाटक 'जूलियस-सीज़र' में, सीज़र के निकटतम साथी ब्रूटस ने जब सीज़र को छूरा घोंपा तो सीज़र ने कहा, 'एट टू ब्रूटस' ! यह तथ्य दुनियाभर की भाषा-लिपी में विश्वासघातियों के लिए प्रयोग किया जाने लगा। पंजाब में कुछ ऐसी राजनीति कांग्रेस में 18 सितंबर को देखने को मिली। अब कैप्टन अमरिंदर सिंह ने नवजोत सिंह सिद्धू की लगातार धींगामुश्ती और पार्टी आलाकमान की बेरुखी से तंग आकर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। कैप्टन वही शख्स हैं जिन्होंने अपने दम पर पंजाब में कांग्रेस का वनवास खत्म किया और पार्टी को 2017 में उस वक्त सत्ता दिलाई, जब देश में कांग्रेस का सूपड़ा लगभग साफ हो रहा था। पंजाब में यह जीत भाजपा के 'कांग्रेस मुक्त भारत' अभियान के लिए धक्का था। कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अपने डून स्कूल के जूनियर, राजीव गांधी, इन्दिरा गांधी, पीवी नरसिम्हा राव, डा. मनमोहन सिंह आदि सभी के साथ कर्मनिष्ठता का प्रमाण दिया। सोनिया गांधी के साथ मिलकर कांग्रेस के लिए काम किया। अब अगर देखा जाय तो नवजोत सिंह सिद्धू ने पंजाब में कांग्रेस के लिए एक तरह से लंबी काली सुरंग खोद दी है। सिद्धू की राजनीति को कृतघ्न, अवसरवादी की श्रेणी में ही रखा जाएगा। कैप्टन अमरिंदर ने सिद्धू से आग्रह किया था, "पाक पीएम इमरान खान के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल नहीं होईए, क्योंकि हमारे सैनिक सीमाओं पर शहीद हो रहे हैं", लेकिन सिद्धू नहीं माने और वे गए। कैप्टन ने हमेशा सिद्धू को यथोचित सम्मान दिया, पर वे हमेशा बगावत के लिए उतारू रहे। संभव है कि इतिहास सिद्धू को ब्रूटस के रूप में याद रखेगा!
मुख्यमंत्री बदलाव मामले में भाजपा के अंदर भी उथलपुथल है तो कांग्रेस के अंदर भी घमासान है। फर्क इतना है कि भाजपा अनुशासित तरीके से कर रही है और कांग्रेस आत्मघाती तरीके से। कांग्रेस को अगर अपना सीएम बदलना ही है तो वर्तमान सीएम को विश्वास में लेकर यह काम करें। क्या भारतीय जनता 'पार्टी विद डिफरेंस' रह गई है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह व भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा के नेतृत्व में पार्टी में सख्त अनुशासन है। भाजपा शासित राज्यों से आ रही खबरें कुछ अलग ही कहानी बयां कर रही हैं। वो चाहे उत्तर प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ हों या मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान या फिर कर्नाटक के पूर्व मुख्य मंत्री बी.एस. येदियुरप्पा- बीजेपी के इन सभी मुख्यमंत्रियों की छवि को बट्टा लगाने वाली खबरों के चलते पार्टी ने इन्हें हटाना ही उचित समझा है। भाजपा ने सबकुछ शांतिपूर्ण ढंग से किया है। कांग्रेस इतनी आसानी से अपना मुख्यमंत्री नहीं बदल पा रही है। कांग्रेस में नेताओं के बगावती तेवर हैं। अपने बगावती नेता पर कांग्रेस लगाम नहीं लगा पा रही है। छत्तीसगढ में टी.एस. सिंहदेव से भूपेश वघेल को लगातार खतरा बना हुआ है। राजस्थान में सीएम अशोक गहलोत व डिप्टी सीएम सचिन पायलट में अनबन है। कांग्रेस का सूपड़ा राजस्थान में भी साफ़ होने के करीब है। देश में सिकुड़ती पार्टी के लिए यह ठीक नहीं है। कांग्रेस अपना अध्यक्ष तक नहीं चुन पा रही है। पंजाब में कांग्रेस कथित रूप से जनाधार विहीन नेता नवजोत सिंह सिद्धू के आगे नतमस्तक होकर अपनी सियासी राह ही मुश्किल की है। कांग्रेस के पास कैप्टन अमरिंदर के कद का कोई नेता नहीं जो पंजाब में अपने दम पर सत्ता में वापसी करा सके। इस्तीफे के बाद कैप्टन ने जिस तरह के बयान दिए हैं, उससे साफ है कि वे कांग्रेस नेतृत्व से बेहद नाराज हैं, आहत हैं और अपमानित महसूस कर रहे हैं। ऐसे में अगले चुनाव में कांग्रेस के लिए काम करेंगे, इसकी उम्मीद नहीं का जा सकती है। निश्चित रूप से कैप्टन अमरिंदर सिंह चुप नहीं रहेंगे, पंजाब में वे अपनी राजनीति की ज़मीन खत्म नहीं होने देंगे। उनके पद छोड़ने के बाद भाजपा ने जिस तरह का बयान दिया है कि सभी देशभक्त लोगों के लिए पार्टी के दरवाजे खुले हैं और अमरिंदर की पीएम मोदी से दोस्ती के बाद अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि वे भाजपा के लिए तुरुप का पत्ता साबित हो सकते हैं। भाजपा पंजाब में अपनी जमीन तलाश रही है। शिरोमणि अकाल दल के राजग छोड़ने के बाद से भाजपा का विश्वास शिअद पर खत्म हो गया है। भाजपा दुबारा शिअद के साथ नहीं जाना चाह रही है। भाजपा को यह भी लगता है कि कैप्टन अमरिंदर किसान आंदोलन खत्म करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। ऐसे में आने वाले समय में कैप्टन अमरिंदर और भाजपा के बीच गर्मजोशी देखने को मिले, तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी। इसलिए आने वाले वक्तत में पंजाब की राजनीति दिलचस्प होने वाली है। वहां कांग्रेस, शिअद-बसपा, आम आदमी पार्टी और भाजपा-कैप्टन के बीच चतुष्कोणीय मुकाबला देखने को मिल सकता है।
यूं तो कांग्रेस की आंतरिक कलह पर नियंत्रण पाने के लिए प्रशांत किशोर की सहायता ली जा रही है। हरियाणा कांग्रेस में भूपेंद्र हुड्डा, कुमारी शैलजा, किरण चौधरी एवं अजय सिंह में नेतृत्व की होड़ जारी है। दीपेंद्र और साधवी प्रज्ञा से 2 लाख वोटों से, भोपाल में चुनाव हारने के उपरांत दिग्विजय सिंह को कांग्रेस ने राज्यसभा में भेजा। सोनिया गांधी हारे हुये प्रत्याशियों को राज्यसभा में क्यों नियुक्त करती हैं? संगठनात्मक रूप से कांग्रेस काफी कमज़ोर है। सर्वोच्च न्यायालय के एस.आर. बोमाई निर्णय का अनेक बार उल्लंघन हुआ है। ऐंटी डिसफेक्शन ला, में चुनाव उपरांत एक जुट, बहुमत प्राप्त दल से मिलकर सरकार में मंत्री बन जाते हैं। ब्रिटिश प्रधान मंत्री विंस्टन चर्चिल ने सही फ़रमाया था, "पॉलिटिशियनज़ आर स्ट्रेंज बैड फैलोज़"! साम दाम दंड भेद, सभी को दांव पर लगा दिया गया है। जनता को सूझबूझ कर अपने निर्णय लेने चाहिए, ताकि दलों को सबक मिले। सच तो यह है कि कांग्रेस में गांधी परिवार का वर्चस्व समाप्त हो रहा है। संगठनात्मक गतिरोध ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के नेतृत्व पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिए हैं। कांग्रेस को पंजाब की घटना से सबक लेना चाहिए। पंजाब में कैप्टन को त्यागपत्र के लिए मजबूर कर देना कांग्रेस के राजनीतिक विस्तार के लिए ठीक नहीं है। ऐसे कदमों से वह भाजपा के कांग्रेस मुक्त भारत के अभियान का मार्ग ही प्रशस्त करेगी।
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